कभी पास से गुज़र गई,
और कभी साथ खड़ी हुई,
चेहरों पे चेहरों को लपेटे,
खुद में कितने भाव समेटे,
कभी इस राह पर,
तो कभी उस राह पर,
बिना रुके, बिना थके,
उमड़ आती तूफ़ान-सी,
कभी बचपन-सी मासूम,
कभी बुढ़ापे-सी बेबस,
कहीं मिलते हंसों के जोड़े हैं,
कहीं लड़ते बेमतलब से मोहरे हैं,
लबों पे थोपे हुए एक नकली हँसी,
दबाये हुए सीने में अपने राज़ कईं,
जाने क्यों ये कभी रूकती नही,
जाने क्यों ये कभी ठहरती नही,
अजनबी-सी कभी,
तो कभी अपनी-सी,
मेरे साथ बढ़ती,
मेरे साथ चलती,
ये भीड़ होकर भी,
है महफ़िल तन्हा लोगों की|
Sunday 28 February 2016
भीड़
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