Thursday 25 December 2014

यादें

छाई हैं बादलों-सी,
ज़िन्दगी के आसमान पर।
कभी गिरती हैं बारिश की बूँदों-सी,
तपती ज़मीन पर।
कभी बहा ले जाती हैं बाढ़-सी,
करती सब तितर-बितर।
कभी देती हैं राहत
आज की तकलीफों से।
कभी देती हैं तकलीफ़
कल की राहतों से।
कभी कर देती हैं तन्हा
महफ़िल में भी।
कभी बन जाती हैं साथी
तन्हाई में ही।
कभी हैं छिपा हुआ खजाना-सा,
कभी हैं ज़ख्म कोई पुराना-सा।
ये यादें भी अजीब हैं यारों,
कभी रुला देती हैं,
कभी हँसा देती हैं।
कभी बहुत कुछ बना देती हैं,
कभी सब कुछ मिटा देती हैं।

ये बेरहम सर्द रातें

हो छत सिर पे,
तो शायद बात और हो।
हो गर्म कपड़े तन पे,
तो शायद बात और हो।
हो तपते हाथ आग पे,
तो शायद बात और हो।
पर क्या करे वो
कि ऐसा है नही,
जाने क्यों उसी के बच्चों ने
किस्मत ऐसी पाई नही।
क्या पाप पिछले जन्म का है कोई,
या गलती इसी जन्म की है सामने आई।
है हैरान-सा वो,
है परेशान-सा वो
कि किससे लड़े,
किससे कहे।
है गर कहीं वो ऊपरवाला,
तो फिर वही सुने
कि होंगे वो और
जिनको भाते होंगे ये सर्द मौसम।
मुझ गरीब को तो लगती हैं दुश्मन
ये बेरहम सर्द रातें।

लिखने बैठे...तो सोचा...

लिखने बैठे, तो सोचा, यूँ लिख तो और भी लेते हैं, ऐसा हम क्या खास लिखेंगे? कुछ लोगों को तो ये भी लगेगा, कि क्या ही होगा हमसे भला, हम फिर कोई ब...