Saturday 4 October 2014

"ललचाती बेबस नजरें"

बुराई पर अच्छाई की और अधर्म पर धर्म की जीत के प्रतीक दशहरा के त्यौहार पर सोसाइटी ने एक कार्यक्रम का आयोजन कर रखा है। लोग कितने उत्सुक हैं रावण को जलता हुआ देखने के लिये। शायद यही कारण है कि सभी नए कपड़ों में सज-धज कर लंकधीश के दहन पर पधारे हैं। एक तरफ रावण का पुतला लगाया गया है और एक तरफ खाने-पीने की चीज़ों का एक स्टाल लगा दिया गया है। लोग अपने परिवारों के साथ अपनी गाड़ियों में दूर-दूर से वहाँ आये हैं। छोटे बच्चे तीर-कमान खरीद कर कुछ यूँ चल रहे हैं जैसे श्री राम ही चले जा रहे हों। बड़े-बूढ़े सभी खाने-पीने में और हर चीज़ का लुत्फ़ लेने में मशगूल हैं।
वहीँ खाने-पीने के सामान की दुकानों के ठीक सामने, सड़क पर लगे उन पत्थरों पर कुछ बच्चे कतार में बैठे हैं। उनकी आँखें कभी खाने-पीने की चीज़ों पर जा रूकती हैं तो कभी खेल-खिलौनों की दुकानों पर। तीर-कमान लिए हुए बच्चों को देखते हुए उनकी आँखें कुछ यूँ लगती हैं मानों पूछती हों कि क्या हम में राम नही हैं? कि क्या हम भी हर उस चीज़ के हक़दार नही हैं जिन पर इन बच्चों का हक है। लोग आते हैं, अपनी कारों से उतरते हैं, उन गरीब बच्चों के अस्तित्व को नकारते हुए, आगे बढ़ जाते हैं अच्छाई को विजय दिलाने और बुराई को जलाने।
तभी आलू टिक्की खाता एक अमीर बच्चा एक कुत्ते को अपनी ओर घूरते देख अपनी माँ से कहता है कि देखो ना माँ ये कैसे मुझे देख रहा है, लगता है बहुत भूखा है। क्या मैं इसको थोड़ा-सा कुछ दे दूँ खाने के लिये? वैसे भी मेरा मन नही ही आलू की टिक्की खाने को। यह देख माँ कहती है ओके बेटा अगर तुम नही खाना चाहते हो तो इस बेचारे को ही दे दो। यह सुन बच्चा अपनी आलू टिक्की की प्लेट उस कुत्ते की ओर फेंक देता है। और वो भूखा कुत्ता उस प्लेट पर टूट पड़ता है। माँ और बेटा चल देते हैं रावण के पुतले की ओर, बुराई को जलाने और अच्छाई को विजय दिलाने। और कुत्ता उस बिखरी आलू टिक्की को सूँघता है, एक या दो टुकड़ा खाता है और वहाँ से चला जाता है। और सामने बैठे गरीब बच्चों की ललचाती बेबस नजरें कभी उस कुत्ते को देखती हैं, तो कभी ज़मीन पर बिखरी पड़ी उस आलू टिक्की को।

लिखने बैठे...तो सोचा...

लिखने बैठे, तो सोचा, यूँ लिख तो और भी लेते हैं, ऐसा हम क्या खास लिखेंगे? कुछ लोगों को तो ये भी लगेगा, कि क्या ही होगा हमसे भला, हम फिर कोई ब...