Sunday 15 March 2015

आँखें भी...होती हैं दिल की ज़ुबाँ...


कभी हैं ये ख़ामोश-सी,
तो कभी लगती हैं बेज़ुबाँ।
कभी दिखाती हैं कोई कहानी,
तो कभी छुपाती हैं कोई दास्तां।।
बन्द पलकों में आसमाँ लिये,
अपने होठों पे कई बातें सिये।
अश्क़ों से होती गुलज़ार ये,
बेवजह भी रोती हैं ज़ार-ज़ार ये।।
किसी में बसा है गहरा समन्दर,
किसी ने दबा रखा है राज़ अंदर।
बिन बोले भी बोलती-सी,
ज़ख्म दिल के खोलती-सी।।
बचके उससे भला कोई जाये कहाँ,
जिसे आती हैं पढ़नी ऑंखें यहाँ।
खो बैठा होंश जिसे हुआ इनका नशा,
कि आँखें भी होती हैं दिल की ज़ुबाँ।।

2 comments:

  1. बेवजह रोती है या वजह नहीं पाती

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    1. "कभी बेवजह रोती हैं तो कभी वजह नही पाती हैं...!"

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