Friday 20 March 2015

वो लम्हे...वो यादें

बचपन भी कितना खूबसूरत दौर था ज़िन्दगी का। ना कोई चिंता, ना कोई परेशानी, ना बीते कल पे पछतावा और ना आने वाले कल का खौफ़। एकदम मस्त था जीवन। जी किया जब खेलने लगे, जी किया जब सो गए। ना दुनिया की ख़बर, ना समाज का डर। बिंदास थे एकदम, बादशाह थे अपनी ही एक छोटी-सी सल्तनत के। बाबा डाँटते, तो माँ अपने आँचल में छिपा लेती और माँ नाराज़ हो जातीं, तो बाबा घुमाने के बहाने बाहर ले जाते। सबके लाडले, सबके दुलारे थे। क्या वक़्त था जब हम सभी की आँखों के तारे थे। देख के हमको कभी कोई गाल खींचता था हमारे, कभी कोई प्यार से पूरे कर देता था अरमान सारे। कोई रोक नही, कोई टोक नही। कितनी सुन्दर, कितनी खुश थी वो बचपन की नगरी।

जाने कब जवानी ने अपनी चौखट पे खींच लिया, हमारे मासूम, भोले उस बचपन को अपने शिकंजे में दबोच लिया। कुछ यूँ करवाया सामना दुनिया की कड़वी सच्चाईयों से, के करवा दिया परिचित अनगिनत परेशानियों से। बचपन में सब सिखाते थे याद रखा करो, वरना भूल जाओगे। जवानी में ज्ञान मिला भूल जाओ, वरना कल को पछताओगे। जहाँ बचपन में हमारे एक आँसू पर सब परेशान हो जाया करते थे, वहीँ आज हमें रोता देख सब मज़ाक बनाया करते हैं। कभी हम पंछी थे एक उन्मुक्त गगन के, आज मानो हम हैं किसी परिन्दे से एक पिंजरे में जकड़े। क्या बेबाकपन, क्या आवारगी थी बचपन में, जवानी ले डूबी है हमें जाने कौन से समन्दर में। ना खेल, ना कोई खिलौना है फिर भी खेले जा रहे हैं खेल ज़िन्दगी का। कभी हम मोहरों को ऊँगलियों पे अपनी नचाया करते थे, आज हम नाच रहे हैं वक़्त और दुनिया की ताल पे।

सोचा था बचपन के बाद जवानी आयेगी तो दुनिया को देखेंगे नये ढ़ंग से, होंगे वाकिफ़ इस ज़माने से। पर देखिये आटे-दाल के मोल-भाव में ही फँस कर रह गए हैं। बचपन छूटा, सारे ख़्वाब टूटे और हम हैं कि बिन अश्क़ बहाये ही ये सारे ग़म सह गए हैं। अब तो रह, रह कर यही सोचते हैं "कोई लौटा दे वो दिन बचपन के..." :-(

पर जानते हैं जो जा चुका है, वो वापिस आता कहाँ है? फिर भी क्या करें याद तो आते ही हैं-
"वो लम्हे...वो यादें...."

No comments:

Post a Comment

लिखने बैठे...तो सोचा...

लिखने बैठे, तो सोचा, यूँ लिख तो और भी लेते हैं, ऐसा हम क्या खास लिखेंगे? कुछ लोगों को तो ये भी लगेगा, कि क्या ही होगा हमसे भला, हम फिर कोई ब...