Tuesday 15 July 2014

उड़ता परिंदा

कभी सोचा है आपने कि कैसे इस दौड़ती-भागती ज़िन्दगी में हम इतने उलझ जाते हैं कि खुद से ठीक से मिल भी नही पाते हैं। बस रोज़ अपनी ज़रूरतों की गठरी को अपने सिर पर लाद कर निकल पड़ते हैं उन्हे पूरा करने। हर रोज़ एक ही सवाल कि क्या हासिल किया कल और क्या रह गया। हमारा हाल अब कुछ ऐसा हो गया है जैसे कोई परिंदा है जिसके यूँ तो पंख भी हैं पर अपने पंखों का इस्तेमाल वो अब सिर्फ अपनी ज़रूरतें पूरी करने में करता है। वो जो कभी अपने पंखों के दम पर आसमान को चीर कर निकल जाने का हौंसला रखता था, आज अपने उन्ही पंखों को उसने अपनी ज़रूरत का साधन मात्र बना कर छोड़ दिया है।
क्या लगता है आपको? मेरा ईशारा किस ओर है। क्या अपनी ज़रूरतों को पूरा करना कोई गुनाह है? क्या ख्वाब देखना, आरज़ू करना कोई गलती है? माफ़ कीजिये मैंने ऐसा तो बिल्कुल भी नही लिखा है। मैं बस ये लिख रही हूँ कि हम परिंदे तो हैं पर उड़ते परिंदे नही। कभी आसमान में स्वच्छन्द उड़ते किसी परिंदे को देखिये और कभी दाने की तलाश में भटकते किसी परिंदे को। दोनों की स्तिथि कितनी अलग है। एक जो आसमान में आज़ाद उड़ रहा है और एक जो बंधा है अपनी ज़रूरतों से।  मैं ये नही कह रही हूँ कि ज़रूरतें पूरी करने के लिये कुछ मत कीजिये, बस उड़ते रहिये। यूँ तो आप भी जानते हैं कि ज़िन्दगी को चलाना मुश्किल हो जायेगा। फिर क्या किया जाए?
हमारी ज़िन्दगी की हर बात एक संतुलन पर टिकी होती है। यहाँ तक कि प्रकृत्ति भी एक संतुलन पर ही हर काम करती है। बस यही संतुलन है जिसे आपको बनाये रखना है। याद रखिये आप इंसान हैं, कोई मशीन नही। आप एक ऐसा परिंदा हैं जिसके पास पंख भी हैं और आसमान को चीर कर उड़ जाने का हौंसला भी। ज़रूरत है तो बस खुद को ये याद दिलाने की कि इस परिंदे को कभी-कभी दाना चुगने के अलावा खुद के लिए भी उड़ना है।
मैं नही जानती कि आप मेरे इन शब्दों का क्या अर्थ लेते हैं। लेकिन अगर मैं साधारण शब्दों में आपको ये समझाना चाहूँ कि मैं क्या लिखना चाहती हूँ तो वो बस यही है कि हर रोज़ की भाग-दौड़ में से थोड़ा वक़्त कभी अपने लिए और अपने अपनों के लिए भी निकालिये।


कसम से ज़िन्दगी गुलज़ार हो जायेगी देखिएगा...।

2 comments:

लिखने बैठे...तो सोचा...

लिखने बैठे, तो सोचा, यूँ लिख तो और भी लेते हैं, ऐसा हम क्या खास लिखेंगे? कुछ लोगों को तो ये भी लगेगा, कि क्या ही होगा हमसे भला, हम फिर कोई ब...