Sunday 8 March 2015

एक अपना-सा अजनबी

परीक्षा शुरू होने में बस दस मिनट ही बचे थे और मंशा अपनी आदत से मज़बूर थी इसीलिये लेट हो ही गई। जैसे ही परीक्षा केंद्र तक पहुँची गेट पर खड़ा गॉर्ड बोला,"मैडम आप बहुत लेट हो, पेपर का समय तो 9 बजे का है अब 9:30 हो चुके हैं।" मंशा के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। ले दे कर एक यही परीक्षा पास हुई थी वरना सरकारी नौकरी के लिए वह जाने कब से मेहनत कर रही है, पर हुआ कुछ नही। तभी गॉर्ड बोला,"अरे मैडम आप जल्दी से अंदर चले जाओ। पेपर शुरू ही हुआ है बस।" मंशा की जान में जान आई। वह भागती हुई सीढ़ियों की ओर गई और पहली मंज़िल पर पहुँच गई। परीक्षा के कमरे में घुसते ही वह पेपर पूरा करने में लग गई। पेपर में ब्रेक हुआ मंशा भी कुछ खाने के लिए बाहर आ गई। सामने की दुकान से उसने अपनी पसन्दीदा आलू पेटिस ली और उसके बाद चाय लेकर एक ओर खड़ी हो गई। अचानक उसकी नज़र उसके ठीक सामने खड़े एक लड़के पर पड़ी, जो ना जाने कब से खड़ा उसे घूर रहा था। मंशा ने नज़र हटा ली। और जैसे ही दोबारा देखा तो फिर से उस लड़के को घूरते पाया। वह सोचने लगी कैसा बेशर्म है घूरे जा रहा है। ब्रेक खत्म हुआ, सभी पेपर देने चल दिए।
अगले दिन फिर पेपर था। आज मंशा वक़्त से पहुँच गई। वो औरों के साथ परीक्षा केंद्र के गेट पर खड़ी होकर गेट खुलने का इंतज़ार कर रही थी। अचानक उसकी नज़र अपने साथ खड़े एक लड़के पर पड़ी। यह वही लड़का था जो कल उसे घूर रहा था। तभी गेट खुल गया और सभी अंदर जाने लगे। पेपर के ब्रेक में मंशा फिर बाहर की दुकान से खाने का कुछ सामान ले कर कहीं बैठने की जगह ढूँढने लगी। वह काफ़ी देर तक अकेली बैठी कुछ सोचती रही। उसे नींद सी आने लगी थी इसीलिये वह एक चाय और लेने चली गई। चाय की दुकान पर चाय पीने ही लगी थी एक आवाज़ ने उसे चौंका दिया। "आप कुछ परेशान सी लगती हैं।" पीछे मुड़ के देखने पे मंशा ने देखा कि ये वही लड़का था। "नही तो।"मंशा ने जवाब दिया। "मैंने कल भी देखा था, आप कुछ परेशान सी थीं, और आप कल लेट भी हों गई थीं काफी।"वह बोला। "वो मेरी ही गलती थी, मैंने टाइम ठीक से देखा नही था। पर परेशान नही हूँ मैं।"मंशा ने जवाब दिया। "पेपर कैसे जा रहे हैं आपके?"उस लड़के ने पूछा। "ठीक ही, ज़्यादा अच्छे नही।" मंशा बोली। परीक्षा का वक़्त हो चला था सो मंशा वहाँ से जाने लगी तो वो लड़का भी अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
अभी दो दिन और थे परीक्षा के। और तीसरे दिन मंशा ने उस लड़के को नही देखा। आखिरी दिन ज्यों ही वह पेपर दे कर बाहर आई उसे लगा शायद उसे किसी ने बुलाया है। वह पलट कर देखने लगी। ये वही लड़का था। "तो, कैसे हुए पेपर्स?"उसने मंशा से पूछा। "जी, ठीक हुए, और आपके?"मंशा ने पूछा। "ठीक हुए। आप मेट्रो से जायेंगी?"उसने पूछा। "जी"मंशा बोली। "एतराज़ ना हो तो साथ चलें?"उसने मंशा से पूछा। "हाँ, हाँ क्यूँ नही।"मंशा उसके साथ चल पड़ी। "आपसे कुछ पूछूँ?"वह लड़का बोला। "जी"मंशा ने जवाब दिया। "इतनी खोई-खोई, इतनी गुम-सुम, इतनी परेशान क्यूँ हैं आप।" जाने कैसे पर वह लड़का मंशा के दिल को पढ़ चुका था। "मैं, नही तो।"और मंशा हैरान थी कि जिस दर्द को वो कहीं भीतर दबाये बैठी थी, वह किसी को भी ना दिखा, आखिर इसे कैसे दिख गया। इसके बाद उन दोनों ने खूब बातें की, यूँ उनमें से ज़्यादातर बातें परीक्षा से सम्बन्धित थीं लेकिन फिर भी बातें बहुत हुई, अचानक विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन आ गया। और उस लड़के को वहाँ उतरना था। "आपसे मिल कर अच्छा लगा, आल दी बेस्ट रिजल्ट के लिए।"वो शायद और कुछ कहना चाहता था पर कह नही पाया। और मेट्रो से उतर गया। मंशा एक बार उसे देख कर मुस्कुराई और फिर खामोश सी कभी उसे तो कभी मेट्रो के बन्द होते गेट को देखती रही। उसे अगले स्टेशन पर ही उतरना था। स्टेशन भी आ गया, वह उत्तर भी गई, घर भी पहुँच गई, पर उसका दिल और उसका दिमाग जाने कहाँ रह गए थे। वह सोच रही थी कि आखिर कैसे बहुत से लोगों के बीच सिर्फ़ एक इंसान उसके दर्द, उसकी तकलीफ़ को देख पाया? आख़िर वह कैसे जान गया कि मंशा ने बहुत गहरी चोट खाई है? दिल टूटा है उसका? आखिर कैसे? तभी उसके मन में एक ख़्याल आया कि उसने तो उस लड़के का नाम तक नही पूछा। कौन था वो? और कैसे उसने उसकी उदास आँखों में सूखे आँसुओं को देख लिया था? वह सोचने लगी कि कितनी हँसमुख थी वो कभी, और एक धोखे ने उससे सब छीन लिया, और उसे गुम-सुम और खोई-खोई सी लड़की बना दिया था। वो तो ऐसी ना थी। जाने क्यूँ पर ये अजनबी लड़का उसको और उसके भीतर की टूटी लड़की को भीतर तक झकझोर गया। और जाने कैसे पर प्यार के धोखे में डूबती वो खिलखिलाती मंशा एक बार फिर तैर कर ऊपर आ गई और किनारे तक पहुँच गई। और सोचने लगी कि ये अजनबी जो उसे मिला था ये कितना अपना था।

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