रुधिर ही रुधिर,
फैला पड़ा चहुँ ओर है,
कतरे-कतरे से फैले हैं,
मानो मानव नही, कोर हैं,
हैं खबरों में छप रहे,
हैं सुर्खियाँ ये बन रहे,
लाशों के ढेरों पर मानो,
मापेंगे हिमाला चलो,
ना बच्चे, ना बड़े,
इनकी राहों में जो खड़े,
कर दिए जायेंगे कलम,
जितने भी सिर दिख रहे,
थामे बंदूकें हाथों में,
रोंधता मानवता लातों से,
है कैसा कहो ये मानव,
मानव कहाँ? ये तो है दानव।
Sunday 11 January 2015
मानव कहाँ? ये तो है दानव।
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