ये कौन कहता है,
कि ज़हर सिर्फ़
बोतल में रहता है।
कभी देखा करो चहुँ ओर,
जो मिल जाये एक भी छोर।
जिसमें नफ़रत का ये विष ना हो,
कहीं कोई बेरहम साज़िश ना हो।
लोग बेताब रहते हैं,
लड़ने को, मरने को।
बातें बेहिसाब होती हैं,
मगर द्वेष में जलने की।
कोई किसी के चरित्र पर,
उठाता है उंगली।
कोई किसी को कह देता है
तुम हो निहायत जंगली।
यूँ अपने गिरेबाँ में वैसे
झाँकता भी कौन है।
खुद को किसी से कम
आँकता भी कौन है।
सभी धुन में हैं कि
चलो इसे नीचा दिखाया जाए।
आज फिर सर-ए-आम
तमाशा उसका बनाया जाए।
वाकई कमाल के हुनरबाज़ हैं हम
नफ़रतें फ़ैलाने में लगाते हैं सारा दम।
सोचो गर इसी ज़ज़्बे से मोहब्बत को
हमने गर बिखेरा होता।
जाने कितनी अंधेरी रातों में
आज उजला सवेरा होता।
जाने किस-किस की ज़िंदगी
फिर से आबाद हुई होती।
अफ़सोस ऐसा होता नही है,
ग़म में किसी के अब कोई रोता नही है।
इंतज़ार रहता है सबको कि
अब मौका मिलेगा, तब मौका मिलेगा।
ऐसा ही चलता रहा तो,
फूल भी नफ़रत का ही खिलेगा।
कोई कहीं से तो एक शुरुआत करे,
कोई किसी से एक दरख़्वास्त करे।
कि हाँ ये एक सच है
कि ज़हर शब्दों में भी होता है,
विचारों में भी होता है।
पर एक सच ये भी है
कि अमृत भी शब्दों में ही होता है,
विचारों में ही होता है।
Monday, 7 January 2019
ज़हर
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