कभी-कभी अच्छा लगता है मुझे अपने किसी पोस्ट का कुछ ऐसा टाइटल रखना जो पढ़ने में अजीब लगे। मुझे लगता है ये एक तरह के आकर्षण का कार्य कर देता है। प्रभावित होना मनुष्य की प्रवृत्ति में शामिल है। कहीं कुछ अलग-सा देखा नही कि मुड़ गए उसकी ओर। बस अब तो उसका पूरा अता-पता निकाल कर ही दम लेंगे। जाने क्या है ये? पर जो भी है कहीं ना कहीं हमारी जिज्ञासा को बढ़ा जाता है। यूँ देखिये तो जो भी है अच्छा ही है। और कुछ ना सही इस तरह से थोड़ा बहुत ज्ञानार्जन हो जाये तो भला बुराई भी क्या है इसमें? बहरहाल मैं अपने टाइटल के विषय में लिख रही थी। ध्यान यहीं केन्द्रित रखते हुए पोस्ट को आगे बढ़ा रही हूँ।
आप टाइटल से प्रभावित हुए? बेशक हुए। वरना इस पंक्ति तक तो कभी ना पहुँचते। क्या था ऐसा इस टाइटल में। लिखा था-100 प्रतिशत झूठ। तो जी ऐसा क्या था इसमें? कुछ भी तो नही। हाँ पर एक बात अजीब ज़रूर थी कि लोगों के मुँह से आज तक आपने 100 प्रतिशत सच सुना होगा, पर यहाँ तो झूठ लिखा है। बस यही एक शब्द अलग हो गया और आपका ध्यान यहीं खिंच गया। हाँ तो 100 प्रतिशत झूठ, इस विषय को क्यूँ लिया मैंने? और लिख क्या रही हूँ इस पर मैं? या आखिर लिखना क्या चाहती हूँ मैं? मैं इस बात से भली भाँति अवगत हूँ कि आपके दिमाग में ये सभी सवाल अभी धमा-चौकड़ी मचा रहे होंगे। ऐसा होना भी चाहिये।
अच्छा, तनिक ये सोचिये कि हम जिस संसार में रहते हैं, वहाँ सच बचा कितना है? साधारण-सा सवाल है। अपनी पूरी दिनचर्या में तलाश कीजिये सच को। दिन में कितनी मरतबा सच बोलते होंगे आप? जब अपनी पूरी दिनचर्या का विश्लेषण आप कर लेंगे तो यह पायेंगे कि हमारे रोज़ के रूटीन में झूठ एक पारिवारिक सदस्य की तरह शामिल हो गया है। और इसकी ये घुसपैठ इतनी गहरी है कि हम चाहें भी तो इसे बाहर नही निकाल पाते हैं।
क्या? आपको यकीन नही इस बात पर।
चलिए एक छोटा सा उदाहरण देती हूँ इस बात की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए। मान लीजिये आपने मूवी देखने का कार्यक्रम बना लिया, आप बाहर निकलें इससे पहले ही आपके मित्र का फ़ोन आ गया! उसने पूछा कि आप कहाँ है, वो आपसे मिलने आना चाहता है या चाहती है। सच बताईये आप में से कौन कोई बहाना नही बनाएगा? और जनाब कोई बहाना बनाना भी तो झूठ बोलना ही है।
आप अभी भी सहमत नही? अच्छा एक और उदाहरण। मान लीजिये आप अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिख रहे हैं, ख़्याल भी अजीब होते हैं, अभी हैं ज़हन में, तो अगले ही पल गायब। बस ऐसा ही कोई ख़्याल आपके ज़हन में भी घूम रहा है और आप जल्दी से जल्दी उसे अपनी पोस्ट में ढाल देना चाहते हैं। अचानक आपके व्हाट्स ऐप पर आपके ख़ास दोस्त के मेसेज आने शुरू। आप सब देख भी रहे हैं, पढ़ भी रहे हैं, पर ब्लॉग के पोस्ट को पूरा करना आपकी प्राथमिकता है। आप पहले पोस्ट पूरा करेंगे, फिर अपने मित्र को जवाब देंगे। और जब वो पूछेगा या पूछेगी कि इतनी देर से जवाब क्यूँ दिया आपने। तो आप एक सॉलिड सा बहाना उनकी पेश-ए-ख़िदमत कर देंगे। और मैं फिर यही लिखूँगी, बहाना भी झूठ ही है जवाब।
ऐसे अनगिनत उदाहरण मैं यहाँ लिख सकती हूँ। पर क्या फ़ायदा जिसने मेरी बात पर सहमति जतानी है वो तो एक ही उदाहरण में जता देगा। और जो मुझसे असहमत है, वो हज़ारों उदाहरणों के बावज़ूद भी असहमत ही रहेगा।
बहरहाल, ये कोई वाद-विवाद प्रतियोगिता नही। मेरे पोस्ट का टाइटल है - 100 प्रतिशत झूठ। और मेरा उद्देशय बस यही था कि मैं इस बात को दिखा सकूँ कि झूठ हमारी ज़िन्दगी में कुछ इस तरह शामिल हो चुका है कि इसकी उपस्तिथि 100 प्रतिशत के करीब हो गई है। और ऐसा किया भी मैंने। ये और बात है कि आप इससे सहमत हुए या नही।
कहते हैं-
"जिस झूठ से किसी का भला हो, वह झूठ, झूठ नही होता है।"
पर एक सच तो यह भी है कि
"झूठ सिर्फ़ झूठ ही होता है, भले ही उससे किसी का कितना भी भला क्यूँ ना होता हो।"
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