था ठहरा सब कुछ,
जाने कितने दिनों से।
जड़ता जाने ये कैसी थी,
थी भी कहीं या नही थी।
ना शब्द मिले, ना कलम चली,
ज़िन्दगी थमी, पर रुकी नही।
कुछ लिखने को ना था,
बात ये भी बिल्कुल ना थी।
मन में मन के ख़्याल थे,
ज़िन्दगी के उलझे सवाल थे।
वक़्त की ना थी कमी कोई,
मैं ही थी शायद कहीं खोई।
हाँ शायद पहचाना है खुद को,
इन दिनों बहुत जाना है खुद को।
ज़ाया कुछ भी यूँ ही कहाँ गया,
समझो वक़्त ने मुझे थोड़ा वक़्त दिया।
ठहराव था एक ये ज़िन्दगी का,
बदलाव था एक ये ज़िन्दगी का।
अब जो उठा ली है ये कलम,
रुकना कहाँ है, मुझे पता नही।
Friday, 1 June 2018
ठहराव
Subscribe to:
Posts (Atom)
लिखने बैठे...तो सोचा...
लिखने बैठे, तो सोचा, यूँ लिख तो और भी लेते हैं, ऐसा हम क्या खास लिखेंगे? कुछ लोगों को तो ये भी लगेगा, कि क्या ही होगा हमसे भला, हम फिर कोई ब...
-
कभी-कभी आगे बढ़ते हुए जब अचानक पीछे मुड़ कर देखते हैं तो ख़्याल आता है कि काश उस वक़्त ये ना हो कर वो हो गया होता तो शायद आज तस्वीर कुछ अलग होती...
-
कहते हैं जननी से धन्य ना कोई हो सका है और ना ही कभी होगा। एक माँ जो अपने बच्चे को अपने ही रक्त से सींचती है, उसे अपने ही शरीर का हिस्सा देक...
-
These days internet is loaded with a lot of pages containing a detailed information about E Governance i.e. Electronic Governance. An...