'मन की कलम'
"समझ पाओ तो बहुत सुलझी हुई हूँ मैं, ना समझ पाओ तो बहुत उलझी हुई हूँ मैं...!"
Saturday, 13 June 2020
लिखने बैठे...तो सोचा...
Tuesday, 31 March 2020
काश! फिर वही काश
Tuesday, 14 January 2020
ऐसा नही है कि वो कहता नही है...
Thursday, 14 November 2019
काश...
Monday, 3 June 2019
एक प्याली चाय
एक प्याली चाय क्या कर सकती है? सोचिये। मुझे लगता है बहुत कुछ। लेकिन सिर्फ तभी जब आप चाय पीते हों। कोई वजह नही चाय पर कुछ लिखने की, बस यूँ ही मन किया तो सोचा क्यूँ ना इस एक प्याली चाय पर ही कुछ उलझे हुए रिश्तों को सुलझाया जाये, या यूँ कहिये कि ये देखा जाये कि ये एक प्याली क्या-क्या कर सकती है।
चलिये आगाज़ सुबह से करते हैं। दिन की शुरुआत और आज आप एक अलग ही रूप में हैं, रोज़ आपके लिए कोई और चाय बनाता है, मगर आज आप थोड़ा पहले उठे और आपने उनके लिये चाय बनाई, जो रोज़ आपके लिए चाय बनाते हैं, और वो कोई भी हो सकता है।
या फिर ऐसा भी हो सकता है कि आपके किसी दोस्त/सहकर्मी से आपका कोई मन-मुटाव हो गया है, अगर बन्दा/बन्दी चाय पीता/पीती है तो क्या हर्ज़ है एक प्याली चाय से इस मन-मुटाव को दूर करने में।
अच्छा ऐसा भी तो हो सकता है कि आज उन्हे वो बताते हैं जो पिछले एक महीने/एक साल से नही बताया, एक प्याली चाय की मुलाकात में क्यूँ ना एक कोशिश की जाये। हाँ रही तो शुक्रिया उस प्याली का, ना भी रही तो चाय तो पी ही लेंगे साथ में। सौदा बुरा भी नही है।
इस भागती ज़िन्दगी में हम इतने मशरूफ़ हैं कि साथ बैठकर दो पल गुफ़्तगू तक नही कर पाते हैं। चलिये क्यूँ ना आज एक चर्चा चाय पर ही हो जाये। क्या हर वक़्त खुद को रिश्तों से अलग रखना कभी-कभी उनमें उलझ कर भी देखा जाये। आख़िर कितना वक्त लेती है एक प्याली चाय? पर हाँ वक़्त देती बहुत है। यकीन ना आये तो एक कोशिश कर ही लीजिये।
शाम का वक़्त हो, बालकनी का नज़ारा हो, दूर तक दिखता हो आसमाँ और साथ में एक प्याली चाय, यहाँ आप उनसे मिल सकते हैं जिन्हें रोज़ आईने में देखते तो हैं आप पर शायद पहचान नही पाते हैं, या भूल गए हैं।
अब कहिये जनाब! क्या नही कर सकती है ये एक प्याली चाय।
"कुछ दूरियाँ, कुछ फाँसले मिटा सकती है,
ये एक प्याली चाय किसी को करीब ला सकती है...।"
Sunday, 2 June 2019
कभी सोचा है?
कभी-2 लगता है कि ऐसी बहुत-सी बातें हैं जिनके बारे में हम कभी सोचते ही नही हैं। पता नही सोचते नही हैं, या समय नही होता है, या फिर सोचना ही नही चाहते हैं। जो भी है पर हम सभी की ज़िन्दगी में ऐसा बहुत कुछ है जिस पर सोचना बहुत ज़रूरी है।
जैसे -
क्या हम आज जहाँ हैं , वहाँ हम खुश हैं?
क्या हम जो हैं, हमें वही होना था, हमें वही बनना था?
क्या आज जो भी हमारे पास है, हम वही चाहते थे?
क्या हम वही ज़िन्दगी जी रहे हैं, जैसी हमने सोची थी?
ये फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। सवाल ऐसे हज़ारों हैं, जवाब इसीलिए नही हैं क्यूँकि हमने कभी सोचा नही, या यूँ कहिये कि हम सोचना चाहते ही नही हैं। वज़ह जो भी हो मुद्दा ये है कि आख़िर ऐसे सवाल अगर हैं भी तो क्यूँ हैं और हम इनके बारे में सोचते क्यूँ नही हैं? ज़रूरी नही कि आप मेरी हर बात से इत्तेफ़ाक रखें। हाँ पर एक बात ज़रूर है कि इनमें से कोई ना कोई सवाल आपके ज़हन में भी कहीं छिपा होगा बस या तो वो कहीं दबा है या आपने शायद उसे दबा रखा है। और अगर ऐसा नही है तो यकीन मानिये आप बहुत खुशनसीब हैं। क्यूँकि ऐसी ज़िन्दगी नसीब वालों को ही मिलती है जिनकी ज़िन्दगी में ऐसा कोई सवाल ना हो।
हाँ अगर आप इन खुशनसीबों में से नही हैं तो यकीनन ऐसा कोई ना कोई सवाल आपके ज़हन में होना चाहिए। मेरा उद्देश्य बस इस बाबत बात करना है कि क्यूँ हम ऐसे किसी सवाल को टालते हैं, उस पर गौर नही करना चाहते हैं, क्यूँ हमारे दिल और दिमाग के बीच एक अजीब-सी रंजिश है, दिल कुछ चाहता है और दिमाग कुछ? क्यूँ हम जी तो रहे हैं पर शायद ये ज़िन्दगी, ज़िन्दगी जैसी नही है? ऐसे सवालों का क्या मतलब है? मैं चाहती हूँ कि हम सभी एक बार अपनी इस भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में से थोड़ा समय निकालें और कभी, कहीं बैठकर ये सोचें-
"क्या आज हम जहाँ खड़े हैं, हम खुश हैं?
क्या हम वहाँ हैं, जहाँ हमें होना चाहिए था...?"
यकीन मानिये अगर इन सवालों के जवाब ना में हैं तो शायद हमें ज़रूरत है अपनी ज़िन्दगी में कुछ बदलने की। हमें ज़रूरत है खुद से मिलने की, वो करने की जो हम हमेशा से करना चाहते थे, वो कहने की जो हम हमेशा से कहना चाहते थे, वो बनने की जो हम हमेशा से बनना चाहते थे। हमें ज़रूरत है उस सपने को दोबारा जीने और देखने की जिसे अपनी जिम्मेदारियों के बोझ तले हमने कहीं दबा दिया है। हमें ज़रूरत है ज़िन्दगी को जीने की।
Sunday, 26 May 2019
एक छोटी-सी मुलाकात
हर कहानी की तरह ये कहानी भी कुछ अलग ही है। एक खूबसूरत सी शाम है, और भीड़ भरा एक बाज़ार है। ज़िन्दगी मानो यहाँ-वहाँ दौड़ रही है। और इसी भीड़ में कहीं टकराना है अश्क़ और नयन को। अश्क़ हमारी कहानी का नायक है और नयन है उसकी नायिका। अश्क़ इस शहर में अकेला रहता है और उसका परिवार रहता है बुलन्दशहर में। नयन इसी शहर की है और शहर है दिल्ली। जनपथ का बाज़ार ,जहाँ आपको क्या नही मिलेगा? बस यहीं उनकी किस्मत को भी आज मिलना है। जनपथ मानो एक गोल-मोल सी भूल-भुलैया है, कहीं बाज़ार तो कहीं बड़ी-बड़ी ईमारतें। बन्दा अगर यहाँ के रास्तों से वाकिफ़ ना हो तो समझो खो ही जायेगा। बस यहीं किसी रेड-लाइट पर रुकी है अश्क़ की कार। और ठीक उसके सामने से सड़क को पार करती निकलती है नयन। नही-नही अभी नही, ये मुलाकत अभी नही होगी। अब क्यूँकि अश्क़ इस भूल-भुलैया में खो गया है तो उसका आख़िरी सहारा गूगल मैप है, तो अपनी मंज़िल का मैप वह लगा चुका है और बढ़ चुका है नयन की ओर। और नयन भी उसी की ओर बढ़ रही है शायद। अचानक अश्क़ का फ़ोन बज उठता है और वहाँ से एक प्यारी सी आवाज़ आती है,"हेल्लो अश्क़ आप कितनी देर में पहुँचेंगे? मैं रिगल सिनेमा के पास पहुँच गई हूँ।" अश्क़,"मैं बस पाँच मिनट में आपके पास पहुँचने वाला हूँ।"
और पाँच मिनट के अंदर अश्क़ की कार रिगल सिनेमा के आगे रुकती है। भीड़ इतनी है कि यहाँ किसी जाने-पहचाने इंसान को भी पहचानना मुश्किल था और इस भीड़ में इन दोनों को एक-दूसरे को ढूँढना था। अश्क़ कार से बाहर आता है और किसी को फ़ोन लगाता है अचानक उसके कंधे पर कोई हाथ रखता है और जैसे ही वो मुड़ता है नयन उसके ठीक सामने खड़ी होती है। दोनों एक-दूसरे को पहचानने की कोशिश करते हैं। वैसे एक बात है कि मैट्रिमोनियल साइट्स से रिश्ता ढूँढ़कर यूँ मिलने आना किसी एडवेंचर से कम नही होता है। यूँ वो दोनों फ़ोन पर कई बार बात कर चुके हैं पर आमने-सामने की यह पहली मुलाक़ात है उनकी। फॉर्मल मेल-मिलाप के बाद ज़रूरी ये है कि कोई शांत जगह तलाश की जाये जहाँ बैठ कर कुछ बात की जा सके। तो तय ये होता है कि सी सी डी में बैठा जाये। अश्क़ वहाँ पहुँच कर कॉफ़ी आर्डर करता है और नयन का पहला वाक्य होता है,"हम बिल शेयर करेंगे, ओके?" अश्क़ हाँ में सिर हिला देता है। और फिर शुरू होता है बातों का सिलसिला। पहली बार अश्क़ को लगता है कि नयन बहुत बातूनी है और उसे चुप करवाना बहुत मुश्किल भी है, पर बोर नही कर रही है बल्कि उसकी आवाज़ कानों को एक सुकून सा दे रही है। उसका दाहिना हाथ बार-बार उसके दायें कान के झुमके को छूता है और बाएँ हाथ से वो अपनी झुल्फ़ों को बार-बार ठीक करती है जो हवा के कारण उसके चेहरे पर आ रही हैं। अचानक नयन को लगता है कि शायद सिर्फ़ वही बोले जा रही है और अश्क़ बिल्कुल चुप हो गया है तो वह अश्क़ को कहती है,"आप अपने बारे में बताईये कुछ?" अब अश्क़ को मौका मिला है बोलने का, पूछने का, कहने का, पर पता नही क्या हुआ है कि उसके सवाल-जवाब सब खत्म हो गए हैं। नयन को ये अजीब लग रहा है और एक ख्याल उसके मन में आ चुका है,"ये मुझे रिजेक्ट करने वाला है पक्का। ये कितना डूड टाइप बन्दा है और मैं एवरेज से भी कम, इसको क्यूँ पसन्द आऊँगी मैं? कहा भी था मैंने मम्मी से कि नही मिलना है मुझे। कहाँ ये और कहाँ मै? जोड़ी ही नही बनेगी। क्या सोचता होगा ये मेरे बारे में?" तभी कॉफी आ जाती है। और अश्क़ अभी भी चुप है। नयन ही जानती है कि अंदर ही अंदर उसे कैसे लग रहा है। अचानक अश्क़ पूछता है,"मैं रियलिटी में कैसा लगा आपको?" और नयन तपाक से जवाब देती है,"बहुत अच्छे।" और ऐसा कह कर वह शर्मा जाती है। बस यहाँ से शुरू हो ही जाती है एक फॉर्मल सी बातचीत। करीब एक घण्टा होने को है, कॉफ़ी पहले ही खत्म हो गई है। और जैसे ही नयन अपनी घड़ी की ओर देखती है, अश्क़ पूछ बैठता है,"चलें?" नयन हाँ में सिर हिला देती है। बाहर आकर अश्क़ पूछता है,"थोड़ी देर पालिका पार्क में घूमें?" नयन को ना कहने की कोई वजह नही दिखाई देती है तो वो हाँ कह देती है। यूँ एक घण्टा और निकल जाता है। अश्क़ पूछता है कि आपको देर हो जायेगी , चलिए चलते हैं। इस पर नयन कहती हैं,"नही में अभी मार्किट में रुकूँगी मुझे कुछ लेना है। आप चलिये।" नयन को यूँ अकेले छोड़ना अश्क़ को अच्छा नही लगता है तो वो भी साथ आने की ज़िद करता है। नयन की शॉपिंग और कुछ नही बल्कि झुमकों की ढेर सारी खरीदारी है। और पालिका है भी इस बात के लिए खूब प्रसिद्ध। बस अब हो ये रहा है कि नयन के हर झुमके के लिए आईना अश्क़ बना रहा है। और धीरे-धीरे वो उसके दिल में उतर रही है। अश्क़ को लगता है कि नयन को वहाँ अकेले ना छोड़ना बस यही एक फैंसला है जिस पर उसे सारी जिंदगी पछतावा नही होगा। क्यूँकि वो छोटी सी मुलाकात और वो हल्की-फुल्की शॉपिंग उसकी पूरी जिंदगी बनाने वाले थे।
वो कहते हैं ना,
"कभी-कभी एक मुलाकात भी ज़िन्दगी भर की ख़ुशियाँ दे जाती है और हमें वो मिल जाता है जिसको हम उम्र भर ढूँढते रहे हों...!"
लिखने बैठे...तो सोचा...
लिखने बैठे, तो सोचा, यूँ लिख तो और भी लेते हैं, ऐसा हम क्या खास लिखेंगे? कुछ लोगों को तो ये भी लगेगा, कि क्या ही होगा हमसे भला, हम फिर कोई ब...
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कभी-कभी आगे बढ़ते हुए जब अचानक पीछे मुड़ कर देखते हैं तो ख़्याल आता है कि काश उस वक़्त ये ना हो कर वो हो गया होता तो शायद आज तस्वीर कुछ अलग होती...
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कहते हैं जननी से धन्य ना कोई हो सका है और ना ही कभी होगा। एक माँ जो अपने बच्चे को अपने ही रक्त से सींचती है, उसे अपने ही शरीर का हिस्सा देक...
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कभी-कभी हम जब अकेले बैठ कर अपनी ज़िन्दगी के पन्नों को पलटते हैं, तो हमारे ज़हन में ये ख़्याल उमड़ते हैं कि शायद उस दिन, उस वक़्त, उस लम्हे में अग...